वह शख्स जालसाज लगता है

सफर की हद है वहां तक, की कुछ निशां रहे
चले चलो कि जहां तक ये आसमां रहे/
यह क्या, उठे कदम और आ गई मंजिल
मजा तो जब है कि पैरों में कुछ थकन रहे/
वह शख्स मुझको कोई जालसाज लगता है
तुम उसको दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे/
-राहत इंदौरी (शनिवार, 25 सितंबर 2010)
तन्हा...तन्हा...तन्हा
इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में
ढूढ़ता फिरा उसको वो नगर नगर तन्हा
तुम फूजूल बातों का दिल पे बोझ मत लेना
हम तो खैर कर लेंगे जिंदगी बसर तन्हा
जिंदगी की मंडी में क्या खरीद पाएगी
इक गरीब गूंगी सी प्यार की नजर तन्हा
-जावेद अख्तर (24 सितंबर 2010)
3 comments:
waah kya baat hai
वह शख्स मुझको कोई जालसाज लगता है
तुम उसको दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे/
रहत इन्दौरी साहब और जावेद अख्तर साहब को समानांतर पढना अच्छा लगा.. सुंदर प्रस्तुति !
रंग जुदा जुदा है और रंगत भी
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