
सानिया-शोएब विवाह का मसाला जब इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों ने परोसना शुरू किया तो फौरन इसे भारत-पाकिस्तान का सवाल बना डाला गया। जाहिर है इसकी अगुआई उन्हीं लोगों ने की, जिनके जिम्मे इसका ठेका है। लेकिन हद तो तब हो जाती है जब आपके आसपास के लोग भी आपके सामने वही बेतुके और बेहूदे सवाल पेश करने लगें। यह सवाल सिर्फ पढ़े-लिखे और सलीके वाले ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने आपको हाई-फाई प्रोफेशनल मानने वाले भी कर रहे हैं। जाहिर है कि रणनीतिक तौर पर ऐसे सवाल पूछकर जहरीला वातावरण पैदा किया जा रहा है।
फेसबुक पर एक सज्जन ने एक बुर्के वाली महिला का फोटो डालकर सवाल पूछा कि क्या इस्लाम में वाकई चार शादियों की इजाजत है...फिर उनका अगला सवाल या सुझाव था कि क्यों नहीं इसमें बदलाव कर मुसलमान इससे छुटकारा पा लेते। यह सवाल अब से नहीं जबसे मैंने होश संभाला है तभी से पूछा जा रहा है और वक्त-वक्त पर इस बारे में तमाम तथ्य उलेमा और प्रबुद्ध मुसलमानों का तबका रखता भी है लेकिन उन तथ्यों से ऐसे लोगों को चैन नहीं आया। उन्हें तो महज माहौल बनाने के लिए सवाल पूछना है।
इस तरह के सवाल उठाने वालों का न तो पढ़ने-लिखने में यकीन है और न ही दूसरे धर्म की गहराई में जाकर चीजों को समझना चाहते हैं। यहां मैं आपके सामने चार शादियों पर सफाई नहीं पेश करने जा रहा हूं बल्कि बताना चाहता हूं कि इस तरह के प्रचार के जरिए माहौल में जो जहर घोला जा रहा है, उससे इस तरह के लोग समाज का कोई बहुत बड़ा भला नहीं कर रहे हैं। हंस हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक है। उसमें रिसर्च स्कॉलर शीबा असलम फहमी का कॉलम छपता है – जेंडर जिहाद। अभी मार्च महीने में हंस में ही प्रकाशित लेख में उन्होंने मुल्ला-मौलवियों की जमकर खबर ली है लेकिन साथ ही यह भी बताया कि इस्लाम में चार शादियां किन परिस्थितियों में होती रही हैं और मौजूदा सूरतेहाल क्या है। वह लेख पढ़ने से ताल्लुक रखता है। लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइटों पर इस तरह का अभियान चलाने वालों के पास ऐसे लेख पढ़ने की फुर्सत नहीं है। हालांकि वह इसे पढ़कर इसमें से नया शगूफा भी छेड़ सकते हैं लेकिन चूंकि सारा मामला कहीं और से संचालित हो रहा है तो उसकी वे जरूरत भी नहीं महसूस करते। एक खास बात का जिक्र करना चाहूंगा कि हंस में जब वह लेख आया था तो उस वक्त सानिया-शोएब शादी की चर्चा दूर-दूर तक नहीं थी। लेकिन इस संदर्भ में अब वह लेख सबसे सामयिक बन गया है।
अब बढ़ते हैं नक्सलवाद की चर्चा की तरफ। इस मामले में भी वही सब दोहराया जा रहा है जो सानिया-शोएब विवाह के मामले में दोहराया गया। दंतेवाड़ा में नक्सली हमले से बहुत पहले पिछले दिनों अंग्रेजी आउटलुक में मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधति राय की रिपोर्ट आई है। उन्होंने नक्सलियों के बीच जाकर विस्तार से उनसे बात की और उस पर अपनी कलम चलाई। उन्होंने देश के सामने तमाम तथ्यों को रखा। उन्होंने वहां तैनात अफसरों के हवाले से लिखा कि नक्सलियों को कुचलने की मौजूदा सरकारी नीति से नक्सलियों को खत्म नहीं किया जा सकता। उनके साथ आदिवासी दिलोजान से लगे हुए हैं।
इस रिपोर्ट का आना था कि लोगों ने अरुंधति राय को राष्ट्र विरोधी होने का प्रमाणपत्र जारी करते देर नहीं लगाई। लोगों ने कहा कि देश के तमाम बुद्धिजीवियों के पास और कोई काम नहीं है, वे सिर्फ ऐसी बातों को सामने लाते हैं जिनसे राष्ट्रद्रोहियों यानी नक्सलियों को मदद मिलती है। अब देखिए जिस मीडिया के बीच ऐसे लोग रहते हैं, उसी मीडिया पर नक्सली भी भरोसा करते हैं। उन्हीं नक्सलियों ने अपनी बात पहुंचाने के लिए अरुंधति राय को उनके बीच आने और बात करने की इजाजत दी। इसी बीच एक और छोटी सी घटना हुई जिसे दिल्ली में बैठे मीडिया मुगल समझ नहीं पाए। नक्सलियों ने झारखंड से एक अफसर का अपहरण किया और उसे शर्ते पूरी होने के बाद प्रभात खबर के पत्रकार को सौपा। आखिर ऐसी क्या वजह है कि नक्सली पत्रकारों और लेखकों पर भरोसा करने को तो तैयार हैं लेकिन सरकार और उसकी मशीनरी पर नहीं।
इस घटना के बाद सरकार और पुलिस की नजर ऐसे पत्रकारों की तरफ गई जो नक्सलियों की खबरें छापते हैं या उनके संपर्क में रहते हैं। एक महिला पत्रकार को इसी आधार पर गिरफ्तार भी कर लिया गया। दिल्ली यूनीवर्सिटी के एक प्रोफेसर से पुलिस ने सिर्फ इसलिए पूछताछ कर डाली कि वह नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं। अब कल को सरकार अरुंधति राय को गिरफ्तार कर लेती है तो कतई हैरान मत होइएगा। जेल में बंद नक्सली नेता कोबाद गांधी के इलाज को लेकर पिछले दिनों दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, उसमें जिन लोगों ने कोबाद के समर्थन में बोला, वह सब के सब पुलिस के रेडार पर आ गए।
जहरीला माहौल बनाने वालों की यह रणनीति काफी कारगर साबित हो रही है। पहले वे लोग ऐसे सवाल पूछते हैं, जिससे आप उबलें और कुछ टिप्पणी करें। उसके बाद उनका पूरा परिवार (खानदान भी कह सकते हैं) इस मामले को भुनाने में जुट जाता है।
7 comments:
हमारे देश में देशभक्ति सिर्फ़ फ़ैशन है. और उसको व्यक्त करने के कई तरीके हैं. आप मुसलमानों को गाली दीजिये, पाकिस्तान को गाली दीजिये, नक्सलपंथियों को आतंकवादी घोषित कर दीजिये वगैरह-वगैरह...इन लोगों को गरीब नहीं दिखाई देते, रिक्शावालों और कुलियों को पैसे देते वक्त, सब्ज़ी खरीदते वक्त सबसे ज्यादा सौदेबाजी करते है, सरकारी सामान का सबसे अधिक दुरुपयोग करते हैं और सबसे ज्यादा धार्मिक होते हैं.
कल जो कुछ भी हुआ, उसे कतई सही नहीं ठहराया जा सकता. उसकी जितनी निन्दा की जाये कम है. लेकिन जो मारे गये वो भी गरीब थे और जिन्होंने मारा वो भी गरीब...सरकार को सोचना चाहिये कि इतनी बड़ी संख्या में नक्सली जब सौ लोगों को मारने के लिये आ सकते हैं, वो भी इतनी ज़बर्दस्त योजना बनाकर, तो मामला कितना गम्भीर है. समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं. अभी तो सरकार जो भी कठोर कदम उठाये, वो ठीक लेकिन आगे इसकी जड़ों को खोदना बहुत ज़रूरी है.
आपकी बात से पूरी तरह सहमत हु, जहर फैलाना ही कुछ लोगो का मकसद हो गया है, सच्चाई तो कोसो दूर पीछे छुट जाती है, फिर लोग उलझाते रहते है सही और गलत में और एक गोले की तरह वही आ जाते है जहा से शुरू किये थे और ये लगातार चलता ही रहता है. आपके इस लेख में आपकी ईमानदारी झलकती है, आगे भी लिखते रहे इंतजार रहेगा.
एक सवाल मेरे पास भी है...आप कहीं पाकिस्तान या फिर नक्सलियों की तरफ़ से तो ये ब्लॉग नहीं चला रहे ?
मुर्तज़ा
mukti ji, hinduon ko gaali dijiye,bharat ko gariyayen, jo maren hain unke jakhmon par namak chhidakiye.. ye adhik achchaa hai..
सवाल भी नही पूछे तो क्या करें?
आप से सहमत हूँ। जब भी कोई राजसत्ता जनता की अपेक्षाओं को पूरी करने में असफल रहती है तो वह तानाशाही की तरफ भागती है। लेकिन जब तानाशाही स्थापित करना मुमकिन न हो तो वह नाजीवाद की तरफ भागती है।
फ़ासीवाद मध्यवर्ग के कन्धों पर चढ़ कर ही आता है। ये उसी के कदमों की आहट है।
'फिर न कहना हमें ख़बर न हुई'
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